पर्यावरण आज एक चर्चित और महत्वपूर्ण विषय है जिस पर पिछले दो-तीन दशकों से काफी बातें हो रहीं हैं और काफी चिंता भी काफी व्यक्त की जा रही है लेकिन पर्यावरणीय असंतुलन अथवा बिगाड़ को कम करने की कोशिशें उतनी प्रभावपूर्ण नहीं हैं, जितनी आवश्यक हैं।
पर्यावरण के असंतुलन के दो मुख्य कारण हैं। एक है बढ़ती जनसंख्या और दूसरा बढ़ती मानवीय आवश्यकताएं तथा उपभोक्तावृत्ति। इन दोनों का असर प्राकृतिक संसाधनों पर पड़ता है । पेड़ों के कटने, भूमि के खनन, जल के दुरुपयोग और वायु मंडल के प्रदूषण ने पर्यावरण को गंभीर खतरा पैदा किया है। इससे प्राकृतिक आपदाएं भी बढ़ी हैं।
पेड़ों के कटने उसकी मिट्टी को बांधे रखने, वर्षा से मिट्टी को बचाने, हवा को शुद्ध करने और वर्षा जल को भूमि में रिसाने की शक्ति लगातार क्षीण हो रही है। इसी का परिणाम है कि भूस्खलन और भूमि का कटाव बढ़ रहा है जिससे मिट्टी अनियंत्रित होकर बह रही है। इससे पहाड़ों और ऊँचाई वाले इलाकों की उर्वरता समाप्त हो रही है । दुनिया के अनेक भागों में भूकम्प के झटकों ने जन-जीवन में भारी तबाही मचाई है। 1998 में उत्तराखंड में भूस्खलनों की भी व्यापक विनाश-लीला रही। यह सही है कि प्राकृतिक आपदाओं को हम पूरी तरह रोकने में समर्थ नहीं हैं किंतु उन्हें उत्तेजित करने एवं बढ़ाने में निश्चित ही हमारी भागीदारी रही है। क्षेत्रों में स्थाई विकास की योजनाओं को प्राथमिकता दी जानी चाहिए। उस क्षेत्र की धरती, पेड़, वनस्पति, जल, जानवरों को बचाना चाहिए।
यह भी जरुरी है कि ऐसे नाजुक क्षेत्रों में आपदाओं के बारे में सूचनाओं का बिना रोक-टोक आदान-प्रदान किया जाना चाहिए। प्राकृतिक आपदाओं से संबंधित संवेदनशील क्षेत्रों को चिन्हित किया जाना चाहिए।
0 comments:
Post a Comment